रविवार, नवंबर 14, 2010

ग़ज़ल

बद्‌दुआ हर इक को दिए जा रहा है वो,
अना का जामे-तल्ख़ पिए जा रहा है वो।

ग़मज़दा माज़ी उसे कितना अज़ीज़ है,
मुस्तक्बिल में उसकी चाह किए जा रहा है वो।

नूर के प्याले यहां छलक छलक रहे,
अंधेरों से रस्मो-राह किए जा रहा है वो।

रिश्तों की शीरग़ी पडी कूज़े में बंद है,
तल्ख़ियों से निबाह किए जा रहा है वो।

दौरे-हादसात भी उस्तादे-कमाल है,
हर शरो-लम्हा इस्लाह किए जा रहा है वो।

कत्ल करने की उसे सौ कोशिशें हुईं,
सख़्तजान ग़म है जिए जा रहा है वो।

ख़ुदाया रास्ते में कोई लूट ले उसे,
सरमाया नफरतों का लिए जा रहा है वो।

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