रविवार, दिसंबर 12, 2010

कला !

मेरे प्यार से अथाह,
जलधि की गोद में
रजत-श्वेत मखमल सी
बालुका में तुम्हारे निर्देश पर
स्वप्नों से सुन्दर
घरौंदे बनाते हुए।
दूर क्षितिज पर मिलते
जलधि और सन्ध्या के
रक्तिम झिलमिल ओष्ठ युगल को
तुम्हारे अल्हड़ खिल-खिल पड ते
होठों सा बताते हुए।
भावों की लहरों पर उतराता
तुम्हारे केषों को सहलाता
तुम्हारी कदली-सुकोमल भुजा पर
थके सिर को टिका कर
कह उठा था अनायास ही-
“कला ! आओ
मिल कर ऐसा यंत्र बनाएँ
दोनों मिल उड जाएँ
वहीं...... जहाँ........
सागर-तट की रेती
कला की मारीचिका दिखा कर
तेरे होठों को मेरी कोमल तूलिका बता कर
स्वप्नों के महलों में भटकाती जाए, भटकाती जाए......
तुम हो, मैं हूँ, और
हमारे बीच में हो....एक
खाली आसमान सा विशाल
कैनवस और सागर सी अथाह
रंग की प्याली..........।''
और भी जाने
क्या-क्या कह जाता, यदि
मेरे होठों पर तुमने
माँ की थपकी सी हल्की
चपत न लगा दी होती।
फिर संकेत किया
हर दिशा से आती
निशा और एक नई
झंकार की ओर।
स्तब्ध सा मैं, मासूम सा मैं
तुम्हारे गम्भीर चक्षुदल में
वैसा ही घूर उठा था....
जैसा घूरा था,
माँ की ममतामयी आँखों में,
जब देखा था पहली बार
पत्थर का भगवान।
तुम , कठधरे में खड़े मुजरिम
सा भाव लिए मुख पर
कह उठी थी,
दुःखी व आर्द्र स्वर में-
“हे कलाकार!
तूने मुझको किया
पूर्ण हृदय से वरण, पर फिर भी
वह पूर्ण मिलन न था।
मैंने सौंपा था सर्वस्व अपने अस्तित्व का
वह अस्तित्व, जो अधूरा था....
अपूर्णता थी केवल इसी
झंकार की उसमें,
हो सके तो इस अधूरे मिलन में
तेरे पूर्ण प्रेम का अपूर्ण प्रतिफल
देने के अपराध को
क्षमा करना, भूल जाना......।''
इन शब्दों के आगे भी था
शायद, विस्तार उस कथन का
परन्तु, तुम्हारे अस्तित्व की पूरक
वह झंकार, कुछ इतनी विकल हो कर,
इतनी निकट आ पहुँची कि......
हर स्वर उस झंकार का,
तेरे शब्दों को मूक बना
तड़पा गया था।
तुमने लपक कर उस अदृष्य
वीणा को लेकर गोद में,
यूँ सुरों का संधान किया,
आह्‌वान किया, कि....
वीणा का हर स्वर
वीणा की आकृति लिए
समस्त ब्रह्माण्ड में तिरने लगा........
धीरे धीरे
इस वीणाओं की आकाशगंगा से
तेरा पूर्ण हुआ अस्तित्व छिप गया।
इस आकाशगंगा का
एक तारा लिए मै
मदमस्त सा उठकर चल दिया।
वह थी प्रेरणा...
जो तेरे अस्तित्व की पूरक थी
परन्तु मैं उस का एक अंश
लेकर निकला था,
खोज में उसी जग की
जो मेरे स्वप्नों का था स्वर्ग ।
कैनवस भी लिया, रंग की प्याली भी,
हाय! भूल गया लेना, अपनी कला को
कला के मृदुल होठों की
तूलिका भी छूटी।
तुम सागर तट पर बैठी,
पगले प्रियतम कलाकार को
रही देखती जाते
तुम्हारी वीणा का एक स्वर चुराकर
तुम वीणा के तीव्र से तीव्रतर स्वर में
प्रेम से रही बुलाती।
परन्तु मैं,
कला का पगला मृगतृष्णा में,
मारीचिका की मृगया में
चलता ही गया, हाँफता, गिरता।
प्रियतम न था, पुजारी न था.....
तुम क्यों गातीं?
तुम कैसे बनी रहतीं?
वीणाधरिणी, हंसवाहिनी।
पथराई आँखों से रही निहारती,
पुरवाई से उड़ती सागर की
रेत से ढंकते मेरे पदचिन्ह,
छोड वीणा, तोड स्वरों की माला।
जो वीणा मैं ले भागा था,
जिस प्रेरणा से जागा था,
वह तो था एक स्वर, छोटा सा स्वर
प्रेरणा के रूप में।
कर आया था तुमको अनदेखा,
तुम्हारे गीत छूटे, तो वह स्वर
कैसे रहता मेरे हाथों में,
वह तो गूँज कर विलीन हो गया था।
अब प्रेरणा न थी, वीणा न थी,
कैनवस था अब आग फेंकता,
रंग की प्याली सूख गई थी।
मरुभूमि की रेती दिखाती भी थी
कला की मारीचिका,
मेरी भटकन अब न थी
स्वप्नों के महलों में
क्ेवल जलन थी,
पाँवों के छालों में।
कला! आओ आज करें
हम एक दूजे से
एक दूजे की द्गिाकायतें....
तुम पूर्ण हो, और मै
आज कुछ अधूरा सा हो आया हूँ
पहले तुम थी अपूर्ण,
अपूर्ण था अपना, स्वप्नों से भरा,
सुखों से लदा, पहला मिलन.....।
तब समन्वय न था,
और कुछ क्षति भी थी,
मुझ में तब कुछ अति भी थी,
जो था अपूर्ण व अतिपूर्ण का
वह अधूरा मिलन,
बन गया विरह का दहन।
तुम मिल कर प्रेरणा से
पूर्ण हो कोई क्षति नहीं,
मैं जल कर पूर्ण हुआ,
कुछ अति नहीं।
तुम अपनी पथराई आँखों को
धीरे से जगा लेना......
मेरी आँखों से टपके,
तेरी आँखो में अटके
जल बिन्दुओं में,
कुछ सहयोग दे कर
सारा दुःख, मेरे छालों की पीड़ा
बहा देना।

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